गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

ऐ! दोहरे चरित्र वालों मीडिया को ‘रंडी’मत बनाओ


नाच,यदि दर्शकों की संवेदना और उनके सरोकारों से जुड़ा हो तो वह नृत्य का दर्जा हासिल कर लेता है। नर्तकी को आप रंडी नहीं कह सकते। मीडिया कभी-कभी कॉरपोरट की लय और उद्योगपतियों की ताल पर नाचता जरूर है। वह बाजार से इनाम में पूंजी लेता है। लेकिन मीडिया-नृत्य के दर्शक(समाज) उसकी इस कलाकारी को गलत ठहराते हुए उसे रंडी कहना शुरू कर दें,यह खुद अपनी जरूरतों को गाली देने से कुछ कम नहीं है। दर्शकों में से कुछ ऐसे भी होते हैं, नर्तकी की सुंदर,रसीली,कसीली देह को देखकर जिनकी वासना जाग जाती है। वे उसकी देह का भोग भी करना चाहते हैं। उसके साथ हमबिस्तर भी होना चाहते हैं,और वासना की भूख मिटाने के बाद उसे रंडी भी कहते हैं। किसी भी लोकतंत्र में मीडिया की जरूरत और उसकी अहमियत निर्विवाद रूप से सिद्ध है। चूकि मीडिया भी हमारे समाज का ही एक हिस्सा है,इसलिए इसमें खामियां हो सकती हैं। लेकिन आलोचकों को समझना चाहिए कि उनका काम भी मीडिया के बिना के नहीं चल सकता है। वे यह भी अपेक्षा करते हैं कि उनकी आलोचनाओं का प्रकाशन अखबारों में हो,टीवी पर चलायी जायं। वे मीडिया से सटे रहना चाहते हैं, इसके साथ बिस्तर पर सोना भी चाहते हैं और आलोचना के बहाने उसे गाली भी देते हैं। यह दोहरा चरित्र कितना उचित है!
                                 आज समाज का एक ऐसा तबका खड़ा हो गया है जो मीडिया में कॉरपोट और बाजार की पैठ को आधार बनाकर  उसकी पानी पी- पीकर आलोचना कर रहा है। पेड न्यूज का मामला हो,जन सरोकारों की अनदेखी का मामला हो,जल-जंगल-जमीन से जुड़े मुद्दों का मामला हो, इन सारे सवालों की बौछार कर मीडिया को वेधा जा रहा है। किसी-किसी मंच से तो मीडिया के घोर आलोचक उसे बाजार और कारपोरट की रखैल करार दे देते हैं। कुछ दिन पहले एक सेमिनार में मीडिया के प्रोफेशन और एजुकेशन से जुड़े कुछ जानकार लोग जुटे थे। मीडिया में शोध की जरूरत पर एक परिचर्चा थी। इसके प्रतिभागी के तौर आईआईएमसी के एसोसिएट प्रोफेसर आनंद प्रधान ने कहा कि मीडिया समाज को जोड़ने की जगह तोड़ रहा है। आज चुनावों में राजनीतिक दल के कार्यकर्ता वोट मांगने के लिए मतदाताआें से मिलने घर-घर नहीं पहुंचते। बल्कि वे मीडिया के इस्तेमाल से ही लोगों से संपर्क बनाते हैं और उन्हें अपनी ओर खींचने की हर कोशिश करते हैं।  इससे जनता और राजनीतिक दलों के बीच एक खाई पैदा होती जा रही है। उन्होंने कहा कि आज का मीडिया कारपोरेट के लिए लॉबिंग करता है। बाजार के इशारे पर एजेंडा तय करता है। बाजार की,कारपोरेट की, जो जरूरतें हैं,उनके लिए जनता और सरकारों के बीच माहौल तैयार करता है। फिर धीरे से जरूरत को एक विकल्प बनाकर पेश कर देता है। सरकार वही वैकल्पिक कदम उठाती है और इसका पूरा मजा बाजार लेता है। यह काफी हद तक सच भी है। ऐसी खामियों की आलोचना होनी चाहिए। आलोचना इस आधार पर भी होनी चाहिए कि जिस हथियार से हम भ्रष्टतंत्र के खिलाफ लड़ाई ठाने हुए हैं,उसकी समय-समय पर जांच भी होनी चाहिए। ताकि पता चल सके कि उसकी घार भोथरी तो नहीं हो गयी है। यदि भोथरी हो गयी है,तो उसपर फिर से धार चढ़ायी जा सके। लेकिन सवाल धार चढ़ाने तक का ही है। हथियार को फैंकने तक यह सवाल पहुंच जाता है तो फिर दूसरा सवाल यह खड़ा होगा कि है कि अखबार कौन चलायेगा,टीवी चैनल कौन चलायेगा? आज के बाजारू दौर में एक अखबार निकालने के लिए कम से कम सौ करोड़ रुपये की जरूरत है। एक टीवी चैनल चलाने के लिए इससे भी अधिक रकम की जरूरत है। इतनी बड़ी सहयोग के जरिये इकट्ठी नहीं हो सकती। ऐसे में यह मानना ही पड़ेगा कि अखबार और टीवी चैनल वही चला पायेगा,जिसके पास अरबों की संपत्ति है। वही पूंजीपति है। आज 20 पेज का अखबार आता है। एक अखबार पर असल खर्च 10 से 20 रुपये का है। लेकिन वह एक ,दो या तीन रुपयों में लोगों के घर तक पहुंचाया जा रहा है। जिस अखबार का सर्कुलेशन अच्छा नहीं है,उनके मालिकों को तो और भी अधिक खर्च उठाना पड़ रहा है। यह सच है। आज के मीडिया जगत का यथार्थ है। इसे वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग भी मानते हैं। वे कहते हैं कि यदि इसे कोई नहीं मानता तो फिर उसे ही अखबार और चैनल चलाने के लिए आगे आना होगा। वे यह भी मानते हैं कि मीडिया में पूंजीवादी वर्चस्व तब तक बना रहेगा,जब तक वैकल्पिक मीडिया अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाएगा। इस काबिल नहीं हो जाएगा कि मीडिया की मुख्यधार को मोड़ सके। यह बात आम हो चुकी है कि आज मीडिया हाउसों में कारपोट घरानों का दबदबा बढ़ता जा रहा है। वे इनके शेयर के बड़े खरीद्दार हैं। इनके पैसे पर मीडिया घराने चमक-दमक रहे हैं। लेकिन यह भी सच है, मीडिया को अपना काम करने से रोका भी नहीं जा रहा है। वरिष्ठ पत्रकारों का तो आज भी मानना है कि उन्हें दलाली करने,लॉबिंग करने के लिए मालिकों की ओर से दबाव नहीं बनाया जाता है। वे काफी हद तक आजादी से काम करने के लिए आज भी स्वतंत्र हैं। और ऐसा हो भी रहा है। टीम अन्ना का आंदोलन इसका नजीर है। मीडिया पर आरोप है कि अन्ना आंदोलन उसी की शह पर खड़ा हुआ है। मीडिया कबरेज के चलते आदालतों को कई बंद   मामले खोलने पड़ते हैं। कई मामलों में निर्णय पलट जाता है। मीडिया के चलते ही आज सरकार की फजीहत हो रही है। मीडिया राजनीतिक दलों और समाज के बीच एक मध्यस्थ की भूमिका में खड़ा जरूर है,लेकिन मतदाता पहले से अधिक जागरूक हुए हैं। इतने जागरूक कि मीडिया ही ठिक से उनका मिजाज नहीं पढ़ पाता और चुनाव में एक्जिट पोल भी हवा हो जाते हैं। मीडिया ने मध्यस्थ की भूमिका निभाकर लोगों को जागरूक किया है,उन्हें अपनी जमीनी समस्याआें को ठिक से देखने की नजर बख्शी है। आज हर तरफ मीडिया पर निगाह रखने की एक सिविल स्वतंत्र संस्था की मांग उठ रही है। कहा जा रहा है कि भारतीय प्रेस परिषद सरकारी संस्था बनकर रह गयी है। यह बिना दांत का शेर बनकर रह गयी है और मीडिया निरंकुश होकर मनमाने ढंग से अपना काम कर रहा है। यदि मीडिया नीचे से ऊपर तक सबपर निगाह रखने का अधिकारी है,तो उसपर भी निगाह रखने वाली एक संस्था होनी चाहिए। ताकि उसके गलत कदमों को रोका जा सके और सही नियंत्रण बनाया जा सके। यह कितना जायज है,नाजायज है,इसका फैसला आप पर छोड़ता हूं।

बुधवार, 14 मार्च 2012

खबरों से आगे तेज रफ्तार मीडिया


 अध्ययन के विभिन्न अनुशासनों में सूत्र होते हैं,जिनके सहारे छात्र सवालों के जवाब तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। सही सूत्र होने के बावजूद कठिन सवालों के जवाब तक पहुंचने में बहुत देर तक माथापच्ची करनी पड़ती है। लेकिन मीडिया का सूत्र,उसे घंटों का सवाल सेकेंण्डों में हल करा देता है। यहां तक कि जवाब से भी आगे पहुंचा देता है। खबरें पकने तक मीडिया उसे खा चबा जाता है।
               अहम पद नहीं मिलने से नाराज मंत्री जी ने इस्तीफे का मन बना लिया है। लिखा भी है या नहीं, यह सूत्र के हवाले रेस में आगे निकलने की महत्वाकांक्षा में जीने वाले रिपोर्टर के लिए मायने नहीं रखता। तेज-रफ्तार मीडिया में रिपोर्टर की रिपोर्ट भी रफ्तार पकड़ लेती है और मंत्री जी का इस्तीफा भी लगभग करा दिया जाता है। फंसने का कोई डर नहीं होता,सूत्र है ना बड़ा हथियार। मंत्री जी का इस्तीफा नहीं भी होता है,तो अपनी चलायी गयी खबर को बारीकी से काटने के लिए कोई और सूत्र-आधारित तर्क गढ़ लिया जाता है। दरअसल तेज-रफ्तार आज के मीडिया की स्थायी समस्या बन गया है। आगे होने की रेस में कोई पिछड़ना नहीं चाहता है। मीडिया अपने इस भ्रामक लक्ष्य को पाने में यह भी भूल जाता है कि उसका असल मकसद क्या है। इसी भूलावन में वह हर पल कुछ नया खोजने लगता है। कुछ नये की खोज में वह बहुत कुछ महत्वपूर्ण को पीछे छोड़ देता है। समझना हो तो समझिए कि जापान के फुकुशिमा में परमाणु त्रासदी अभी जारी है। दिनोंदिन जहरीला विकरण हजारों मिल के दायरे में आमजन के तन-बदन और प्राकृतिक उपभोग की वस्तुआें में रिस रहा है। इसका भयंकर दूरगामी परिणाम हो सकता है। लेकिन मीडिया को इससे क्या मतलब। जब होगा,तब देखा जाएगा। 86 के रूश में हुई चेर्नाेबिल परमाणु हादसे बड़ा त्रासदी साबित होती जा रही है फुकुशिमा की भयावह घटना। लेकिन घटित होने के बाद ही मीडिया ने इस घटना को सूर्खियों से उतार ही दिया,रोजाना के समाचार एजेंडे से गायब कर दिया। क्यों कि घिसा पिटा नहीं चलाना है। देशी मीडिया की बात करें तो यह और भी आगे है। पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में युपी को सबसे आगे रखा। खुद युपी की खबर बनने वाली गतिविधियों से आगे रहा। मतदान से पहले ही एक्जिट के आधार ‘परिणाम’ जारी कर दिये। परिणाम कितने जमीनी साबित हुए,ये नेता जी लोग समझते रहें। चैनलों और पत्र-पत्रिकाओं को कोसते रहें। मीडिया इनसे आगे निकल गया। सपा को स्पष्ट बहुमत मिला। मुख्यमंत्री पद पर बात मुलायम पर अटकी थी। जय हो! मीडिस की। अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री को भ्रामक ताज बहुत पहले ही पहना दिया। हांलाकि देरी से ताज अखिलेश के ही सिर सजा। ताज सजने का इंतजार मीडिया भला क्यों करे। गुंडाराज की चुनौतियों के सामने अखिलेश को खड़ा कर दिया। उत्तर प्रदेश में खबरों से बहुत आगे चल रहा मीडिया उत्तराखंड में भी पीछे नहीं है। हरीश रावत के नाम पर अटकलों के बीच कांग्रेस आला कमान ने चुपके से विजय बहुगुणा को सीएम बनाने की मुहर लगा दी। यहां मीडिया पीछे एक राजनीतिक दल की कार्य संस्कृति की गोपनीय रफ्तार से अपनी रफ्तार नहीं मिला सका। चूक हो गयी। लेकिन इस भरपाई भी मीडिया ने क्या खूब की। विजय बहुगुणा के शपथ लेते हीं,मीडिया नवगठित सरकार पर ही संकट खड़ा कर दिया। हरीश रावत और उनके समर्थकों की बकवासें जुटा लाया। उनके हवाले से बात फैला दी कि यह सरकार अधिक दिन नहीं चलेगी। एनडीटीवी के एक डिबेट में कांग्रेसी दिग्गज कहते रहे कि सरकार चलेगी। मजबूती से चलेगी। पूरे पांच साल चलेगी। हरीश रावत सरकार के साथ चलेंगे। लेकिन टीवी एंकर जबरन यह कहलवाने पर अमादा था कि यह सरकार नहीं चलेगी, ऐसा हरीश रावत कह रहे हैं। यह है हमारा मीडिया इतनी तेज रफ्तार है,इसकी इस रफ्तार में जो चीजें जानने और समझने लायक होती हैं,झटके में पिछे छूट जाती हैं,यही मैं बार-बार कहने की कोशिश कर रहा हूं। आप भी समझने की कोशिश करिए।